सरकारी-निजी पार्टनरशिप में देने की तैयारी करीब चार माह पहले कर ली गई थी। लेकिन सिविल सोसायटी और लोगों के विरोध की वजह से राज्य सरकार को अपने पैर खींचने पड़े हैं।
Madhya Pradesh: The propriety of temples inside police stations, Petition in High Court
अधिवक्ता ओम प्रकाश यादव की उम्र 82 साल है। वह पहले सरकारी कर्मचारी थे। उन्होंने पुलिस थानों मे धार्मिक स्थानों के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। इसमें कहा गया है कि राज्य में 1,259 पुलिस थाने हैं, जिनमें से 800 में इस किस्म के धार्मिक स्थान हैं। याचिका में कहा गया है कि यह सुप्रीम कोर्ट के 2009 में दिए उस निर्देश का उल्लंघन है जिसमें सरकारी संपत्ति का दुरुपयोग न करने की बात की गई है। इस निर्देश में देश भर में कहीं भी सार्वजनिक रास्तों या सार्वजनिक स्थानों पर किसी मंदिर, चर्च, मस्जिद या गुरुद्वारा के अनधिकृत निर्माण पर रोक लगाई गई है।
मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति विवेक जैन की पीठ ने याचिका स्वीकार करते हुए ‘यथास्थिति’ बनाए रखने का आदेश दिया और सरकार से इस बारे में स्पष्टीकरण मांगा। सरकार के स्पष्टीकरण पर 17 दिसंबर को असंतुष्टि जताते हुए राज्य सरकार से सात दिनों के अंदर व्यापक और वस्तुस्थिति वाली रिपोर्ट देने का आदेश देते हुए सुनवाई की अगली तारीख 6 जनवरी रखी है। कोर्ट ने कहा कि मुद्दा गंभीर है और धार्मिक संरचनाएं संविधान के मूलभूत सिद्धांतों और मूल संरचना का उल्लंघन करती हैं।
सरकार ने अपने जवाब में याचिकाकर्ता पर परोक्ष अभिप्राय से प्रेरित होने का आरोप लगाया है। लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने का याचिकाकर्ता पर आरोप लगाते हुए सरकार ने हाईकोर्ट में कहा कि याचिका पुलिस वालों को तंग करने के लिए दायर की गई है और यह बेबुनियाद है क्योंकि किसी भी थाने में ऐसी कोई संरचना नहीं है। सरकार ने इस बात पर भी जोर दिया कि कोर्ट में जाने की जगह याचिकाकर्ता मामले को निबटाने के लिए जिलाधिकारी-जैसे किसी वैकल्पिक फोरम के पास भी जा सकते थे।
याचिकाकर्ता की मदद करने वाले अधिवक्ताओं में से एक सतीश वर्मा ने संडे नवजीवन से कहा कि पुलिस थाने सरकारी भूमि हैं, पुलिस इसकी ट्रस्टी है और पूजास्थलों के निर्माण सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट- दोनों द्वारा समय-समय पर दिए गए आदेशों के सीधे-सीधे उल्लंघन हैं।याचिकाकर्ता ओम प्रकाश यादव का मानना है कि पुलिस थाने के अंदर धार्मिक संरचनाओं के निर्माण पुलिस की मिलीभगत और सीधी अनुमति तथा भागीदारी के बिना संभव नहीं है।
उनका दावा है कि इनमें से कई का उद्घाटन तो वास्तव में जिला पुलिस अधीक्षकों ने किया है और बाहर के लोगों द्वारा उनकी अनुमति के बिना इन संरचनाओं का निर्माण असंभव है। बाद में आए एसपी अगर इसे अनुचित भी समझते भी रहे हों, तो इन संरचनाओं को हटाने से हिचक गए होंगे। कई दफा राजनीतिक दबाव भी होते हैं और कई अन्य अवसरों पर शांति बनाए रखने और आबादी के एक वर्ग को संतुष्ट किए रखने की इच्छा से भी इन्हें हटाने पर रोक लगती है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी संपत्ति पर धार्मिक सरचनाओं पर रोक का निर्देश 2009 में दिया था जिस पर मध्य प्रदेश सरकार ने 2013 तक कम-से-कम 571 धार्मिक स्थान हटाए थे। कोर्ट ने राज्य सरकारों और केन्द्रशासित प्रदेशों को ऐसी संरचनाओं की समीक्षा करने और उचित कार्रवाई के निर्देश दिए थे। कोर्ट ने आदेश के कार्यान्वयन के पुनरीक्षण और कोर्ट की अवमानना से संबंधित याचिकाओं का निबटारा करने के अधिकार हाईकोर्ट को दिए थे।
देश में जो स्थिति है, उसके मद्देनजर ताजा घटनाक्रम पर लोगो की निगाहें हैं। देखना है कि राज्य सरकार अपनी संशोधित रिपोर्ट में क्या कुछ कहती है। यह भी देखने वाली बात होगी कि क्या वह इससे ध्यान हटाने और मामले को लटकाने के लिए कुछ और समय की मांग करती है।
सरकार को पीछे खींचने पड़े पैर
सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में सौपने के खयाल से इन्हें सरकारी-निजी पार्टनरशिप में देने की तैयारी करीब चार माह पहले कर ली गई थी। लेकिन सिविल सोसायटी और लोगों के विरोध की वजह से राज्य सरकार को अपने पैर खींचने पड़े हैं। 12 सबसे गरीब जिलों में 100 बेड वाले मेडिकल कॉलेज बनाने के लिए जुलाई में निविदाएं ऑनलाइन आमंत्रित की गई थीं। असल में, विचार वर्तमान जिला असप्तालों को इस तरह अपग्रेड करने का था।
जो शर्तें थीं, उसके अनुसार सरकार इन अस्पतालों को निविदा में चुनी गई कंपनी को सौंप देती। कंपनी पर अस्पताल को अपग्रेड करने, मेडिकल कॉलेज बनाने और उसके लिए पैसे का प्रबंध करने का दायित्व होता। तब संबंधित कंपनी अस्पताल का प्रबंधन और देखरेख करती तथा इसे चलाती। यह योजना कटनी, मोरैना, पन्ना, बालाघाट, भिंड, धार, गुना, खरगोन, सिवनी, सीधी, टीकमगढ़ और बेतूल में लागू होनी थी। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से ये राज्य के सबसे गरीब जिले हैं। हर जिले के लिए रिजर्व या बेस रेट 260 करोड़ रुपये रखे गए थे। जो शर्तें रखी गई थीं, उसके अनुसार, अपग्रेड किए जाने वाले अस्पताल में एक चौथाई बेड पेईंग होते।
स्वास्थ्य विभाग के जिम्मेदार उपमुख्यमंत्री राजेन्द्र शुक्ल ने यह कहते हुए इस योजना का समर्थन किया कि इससे इन जिलों में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हुई होतीं और राज्य में मेडिकल कॉलेजों की संख्या भी बढ़तीं। लेकिन स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काम करने वाले ऐक्टिविस्टों के साथ-साथ बीजेपी के अंदर के लोग भी मान रहे हैं कि निजीकरण तथा रूटीन और इमर्जेंसी सेवाओं पर पैसे वसूलने की संभावना भी दुखदायी होगी। दबाव के बाद सरकार ने फिलहाल इस पर आगे बढ़ने पर रोक लगा दी है और योजना की समीक्षा करना तय किया है।
दरअसल, इसे लेकर चारों ओर विरोध हो रहा था। सीधी में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले उमेश तिवारी ने वजह भी सामने रखी, ‘सीधी की दूरी राजधानी भोपाल से 600 किलोमीटर है। सीधी जिला अस्पताल न सिर्फ जिला बल्कि आसपास के इलाके में सबसे बड़ा स्वास्थ्य प्रदाता है और लाखों लोगों की जरूरतें इससे पूरी होती हैं। यहां मिलने वाली निःशुल्क सुविधा अगर छिन जाती है, तो लोग कहां जाएंगे?’
व्यापमं का भूत
मध्य प्रदेश कर्मचारी चयन मंडल (व्यापमं) में गड़बड़ी का भूत थामे नहीं थमता। वन और कारा विभागों के लिए इसकी संयुक्त परीक्षा, 2023 में शामिल होने वाले उम्मीदवार परिणाम के खिलाफ ठंड के इस मौसम में भी सड़कों पर उतर आए। इस परीक्षा में टॉपर रहे सतना के राजा भैया प्रजापति को 100 अंकों में 101.66 अंक मिले हैं! प्रदर्शन करने वालों ने धोखाधड़ी के आरोप लगाते हुए जांच की मांग की। लेकिन बोर्ड का कहना है कि सब सही है।
बोर्ड ने इसे ‘नॉर्मलाइजेशन प्रॉसेस’ बताया और कहा कि किसी को कुल 100 अंकों से ज्यादा और निम्नतम अंक शून्य से कम भी आ सकता है। बोर्ड का कहना है कि यह प्रक्रिया तब अपनाई गई जब उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा थी और परीक्षाएं कई शिफ्ट और कई दिनों तक करानी पड़ी। हर शिफ्ट में सवाल अलग थे, इसलिए यह प्रक्रिया अपनाई गई ताकि उम्मीदवारों को कठिन सवालों और स्थितियों की वजह से भेदभाव का शिकार न होना पड़े।
यह प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए अपनाई जाती है ताकि किसी परीक्षार्थी को विशेष सुविधा न मिल जाए या दूसरों की तुलना में किसी के साथ असुविधा न हो और परीक्षार्थियों को मिलने वाले अंक इस तरह व्यवस्थित किए जाते हैं कि सबके अंक तुलनात्मक हों। लेकिन प्रदर्शन करने वाले लोग इससे संतुष्ट नहीं हैं और जांच पर अड़े हुए हैं। उनका कहना है कि ‘इस प्रक्रिया को अपनाए जाने के दौरान पहली बार में ही एक परीक्षार्थी को कुल अंक से अधिक मिल गए हैं, इसलिए जांच किया जाना जरूरी है।’